दिल्ली से बिहार आई चुनावी लड़ाई

By Team Live Bihar 104 Views
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महेश खरे

mahesh khare
महेश खरे की तस्वीर

दिल्ली की सरकार बनने के बाद चुनावी लड़ाई अब बिहार शिफ्ट हो गई है। बिहार के चुनाव इसी साल अक्टूबर के आसपास होने हैं। ज्यादा समय बचा नहीं है इसलिए सियासी समीकरण बिठाए जाने लगे हैं। साथ रहने और निभाने की कसमें खाईं जाने लगी हैं।

मोदी के लाड़ले सीएम

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भागलपुर रैली के बाद तो चुनावों के मद्देनजर सियासी बयानों का दौर शुरू हो गया है। मोदी ने जहां नीतीश कुमार को ‘लाड़ले मुख्यमंत्री’ कहा वहीं नीतीश ने एक बार फिर से भरोसा दिलाया- ‘अब इधर-उधर नहीं जाएंगे। जिंदगी भर यहीं रह कर मिलजुल कर काम करेंगे।’ लेकिन नीतीश के लाड़ले ने वो बात कह दी जिसने बिहार क्या देश की सियासत को भी गर्मा दिया है।

उत्तराधिकार का सवाल

निशांत कुमार मुख्यमंत्री नीतीश के बेटे हैं। इधर बहुत दिनों से नीतीश के उत्तराधिकारी को लेकर अटकलें चल रही हैं। जेडीयू का हर चेहरा निशांत के सियासत में आने पर जोर दे रहा है। मजेदार बात यह है कि इस मुद्दे पर बीजेपी और आरजेडी के नेता जेडीयू के सुर में सुर मिला रहे हैं। निशांत इन बयानों पर लगभग मौन रहे। लेकिन, जब भागलपुर रैली में मोदी ने चुनावी बिगुल फूंकते हुए नीतीश को ‘हमारे लाड़ले’ कह कर संबोधित किया तब नीतीश पुत्र के मुंह से सियासती सुर फूट पड़े। वे बोले-अगर पापा बीजेपी के लाड़ले हैं तो उन्हें चुनाव में सीएम फेस घोषित करना चाहिए।’

बीजेपी की रणनीति

बीजेपी बिहार में नीतीश के महत्व को जानती है। इसीलिए यह चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ना चाहती है। सीएम पर पहले ही गृहमंत्री अमित शाह स्थिति स्पष्ट कर चुके हैं। उनका कहना था कि पार्टी का संसदीय बोर्ड इस प्रश्न पर चुनाव के बाद निर्णय लेगा। लेकिन डिप्टी सीएम विजय कुमार सिन्हा के बयान ने जेडीयू नेताओं के कान खड़े कर दिए। डिप्टी सीएम ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्मृति में आयोजित सभा में कहा था- अपने बूते बिहार की सत्ता में आना बीजेपी का लक्ष्य है। यही हमारी अटल जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हालांकि बाद में अनेक नेताओं ने डेमेज कंट्रोल करने की कोशिश की। लेकिन शक की सुई की चुभन अभी दूर नहीं हुई है। इसमें महाराष्ट्र की कहानी का भी कमोबेश असर तो है ही। हाल में बीजेपी कोटे के सात मंत्रियों के शपथ लेने के बाद तो सीएम फेस का सवाल जेडीयू के अंत:पुर में खदबदाने लगा है। हालांकि विधायकों के संख्या बल के हिसाब से जेडीयू के कोटे से 13 मंत्री बनने थे, ये पहले ही बन चुके हैं। मंत्रिमंडल विस्तार में अब बारी बीजेपी की थी। पूरे जातीय समीकरण के हिसाब से शपथ दिला दी गई। कहा जा रहा है कि बीजेपी का बहुप्रतीक्षित कार्य पूरा हुआ।

महाराष्ट्र -बिहार में बहुत फर्क

महाराष्ट्र और बिहार की सियासत का फर्क और मोदी सरकार में जेडीयू का महत्व किसी से छुपा हुआ नहीं है। यह सच है कि टीडीपी और जेडीयू केन्द्र में भी एनडीए के सहयोगी हैं। इसीलिए बिहार की खातिर केन्द्र सरकार को अस्थिर करने का जोखिम कोई भी घटक दल सोचेगा भी नहीं। नायडू और नीतीश को अपने अपने राज्यों के विकास के लिए पैसा चाहिए। यह पैसा केन्द्र से ही मिल सकता है। कहने का तात्पर्य यह कि नीतीश अपनी अंतिम पारी मोदी अथवा बीजेपी को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठाएंगे।

आरजेडी का ऑफर

आरजेडी के पिता -पुत्र भी बिहार की सियासत में नीतीश की अनिवार्यता को समझते हैं। पिछले दो तीन दिल्ली दौरे में जब नीतीश बिना बीजेपी नेताओं से मिले पटना लौट गए तब लालू यादव को इसमें एनडीए की दरार चौड़ी होती हुई दिखाई दी। बिना समय गंवाए नीतीश के लिए आरजेडी के दरवाजे खुले रखने का ऑफर तभी सामने आया। इस ऑफर ने एनडीए की एकता को और मजबूती देने का काम किया। डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने तब यहां तक कह दिया कि अगले 15 सालों तक नीतीश ही बिहार के सीएम रहेंगे। चुनाव सामने हैं तो ऐसे बयान और कुर्मी सम्मेलन जैसे खेला होते रहेंगे। जनता को अपना मन बनाने के लिए अभी पर्याप्त समय है।

अशांत क्यों हैं निशांत?

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बिहार चुनाव को लेकर लोगों की नजर नीतीश पुत्र पर टिकी हुई है। मीडिया की खबरों और निशांत के बयानों को बिहार में बहुत गंभीरता से पढ़ा-सुना जा रहा है। लोग यह सवाल भी कर रहे हैं कि आखिर निशांत इतने अशांत क्यों हैं? बिहार राजनीतिक रूप से एक जागृत राज्य है। ग़रीबी रेखा में निचले पायदान पर टिके इस राज्य में ज्यादातर लोगों की जेब भले ही खाली हो लेकिन वहां के गरीब भी सियासी चालों और समीकरणों को खूब समझते हैं। खुलकर बोलते हैं। बिहार में निशांत की डिमांड के पीछे का सच जनता भी समझ रही है। यह भी चर्चा हो रही है कि चुनाव में सीएम फेस की मांग नीतीश की जानकारी अथवा सहमति के बिना तो नहीं उठाई जा रही होगी।

निशांत फैक्टर कितना कारगर?

हालांकि अभी निशांत ने राजनीति में ना तो प्रवेश किया है और ना ही उनकी संगठन अथवा प्रशासनिक क्षमता से बिहार परिचित है। हां, राजनीति में जिस संयम की जरूरत होती है उसकी झलक निशांत के बयानों और व्यक्तित्व से मिलने लगी है। संयम की बात इसलिए कही जा सकती है क्योंकि अपने पिता के लंबे शासन काल में लोगों को शासन अथवा प्रशासन में निशांत के हस्तक्षेप की घटना शायद ही देखने या सुनने को मिली हो।

नीतीश के विकल्प का प्रश्न

अभी यह भी कहना बहुत जल्दबाजी होगी कि बिहार की जनता नीतीश के विकल्प की तलाश में है। यह भी सच है कि नीतीश बिहार की सत्ता के लिए अनिवार्य हैं। नीतीश के साथ बिहार का लगभग 15 फीसदी वोट बैंक जुड़ा है। इसीलिए वे जिसके साथ होते हैं उसी की सरकार बनती है। बिहार की राजनीति में एनडीए और आरजेडी आमने सामने होते रहे हैं। लेकिन सरकार किसी की भी बने सीएम नीतीश ही बनते रहे हैं।

20 साल की एंटी इंकम्बैंसी

इस बार आरजेडी और कांग्रेस दौनों ही नीतीश सरकार के बीस साल की एंटी इंकम्बैंसी के भरोसे हैं। वहीं बीजेपी जंगलराज की याद दिला कर आरजेडी को घेरती रही है। बिहार में गरीबी, भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था चुनावी मुद्दे हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बिहार के लोग आज भी रोजी रोटी की तलाश में दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में पलायन को मजबूर हैं। शिक्षा और कानून व्यवस्था की हालत सुधरने के लिए अभी बहुत समय चाहिए। राज्य का चेहरा बदल सकता है लेकिन सत्ता की कमान ईमानदार और बिहार के सेंटीमेंट को समझने वाले हाथों में होने चाहिए। सवाल यही है कि नीतीश के अलावा ऐसा चेहरा उभर कर सामने कब आएगा?

कितने फिट हैं नीतीश

बिहार में सीएम नीतीश कुमार की फिटनेस को लेकर भी बहस चल रही है। निशांत यह दावा कर चुके हैं कि उनके पापा पूरी तरह से फिट हैं। जबकि तेजस्वी यादव और प्रशांत किशोर इसको झुठलाते हुए पर्दे के पीछे से शासन चलाने का आरोप बीजेपी पर लगा रहे हैं। इधर सोशल मीडिया पर आए दिन वायरल वीडियो जनता का ध्यान खींच रहे हैं। इस संबंध में सार्वजनिक समारोह में अपने ही एक मंत्री को डपट कर खड़ा करने वाले वीडियो की खूब चर्चा हो रही है।

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