मोकामा घाट की हकीकत — ऊपर से फिटफाट, भीतर जर्जर सच्चाई
औद्योगिक इतिहास से अपराध की ओर — मोकामा का बदलता चेहरा
कभी बिहार का औद्योगिक हृदय कहे जाने वाले मोकामा का नाम आज अपराध, गिरते उद्योगों और सामाजिक विघटन के लिए लिया जाने लगा है।
एक समय यह क्षेत्र फर्टिलाइज़र फैक्ट्री, ब्रिटानिया उद्योग, भारत बैगन और बाटा शू फैक्ट्री जैसी नामचीन इकाइयों के कारण प्रसिद्ध था।
राजेंद्र सेतु, जो गंगा नदी पर बिहार का पहला रेलवे पुल माना जाता है, इस इलाके की आर्थिक धमनियों में से एक था।
गंगा के दोनों किनारों पर फैले उद्योगों ने यहां के युवाओं को रोजगार दिया, लोगों की आय बढ़ी और मजदूर संगठनों का मजबूत नेटवर्क तैयार हुआ।
लेकिन आज तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है।
वह इलाका, जो कभी श्रीकृष्ण सिंह, रामधारी सिंह दिनकर, तारकेश्वरी सिन्हा जैसी विभूतियों के लिए जाना जाता था, अब अपराधियों के लिए कुख्यात हो चुका है।
कभी ‘बिहार का मास्को’ कहलाने वाला बेगूसराय—जो मोकामा से जुड़ा क्षेत्र है—अब अपनी वैचारिक पहचान खो चुका है।

‘ऊपर से फिटफाट, भीतर मोकामा घाट’ — सामाजिक विडंबना की झलक
बचपन में सुनने को मिलने वाला यह मुहावरा—“ऊपर से फिटफाट, भीतर मोकामा घाट”—दरअसल इस इलाके की सामाजिक और आर्थिक सच्चाई का प्रतीक बन गया है।
यह कहावत केवल शब्द नहीं, बल्कि मोकामा के भीतर की गरीबी, अव्यवस्था और बिखरते सपनों का बयान है।
मोकामा टाल के नाम से पहचाने जाने वाला यह विशाल क्षेत्र हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है।
यहां की भूमि खरीफ फसल के लिए अनुपयोगी हो जाती है, जबकि रबी की फसल ही लोगों के जीवन का सहारा बनती है।
स्थानीय लोग इस क्षेत्र की भौगोलिक और सामाजिक संरचना से इतनी गहराई से जुड़े हैं कि उनके मिजाज में भी रबी फसल की तरह संघर्ष और सहनशीलता है।
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उद्योग से उपजे उम्मीद के बीज — और उनका विनाश
कभी मोकामा में चलने वाला डॉक यार्ड कोलकाता और बनारस से आने वाले जहाजों के लिए बड़ा केंद्र था।
इससे व्यापार बढ़ा, रोजगार के अवसर मिले और मोकामा बिहार के औद्योगिक नक्शे पर उभरा।
नाज़रेथ हॉस्पिटल और पास के औद्योगिक इकाइयों ने इस क्षेत्र को शिक्षा और चिकित्सा के दृष्टिकोण से भी अग्रणी बनाया।
लेकिन जैसे-जैसे राजनीति बदली, उद्योग ठप होते गए।
आज न फर्टिलाइज़र फैक्ट्री है, न भारत बैगन, न ब्रिटानिया उद्योग।
जहां कभी मजदूरों की गूंज थी, वहां अब बेरोजगारी, अपराध और राजनीतिक ठहराव की खामोशी है।
राजनीति, धर्म और पतन — विचारधारा का अंत
यह इलाका कभी विचारधारा और आधुनिक विमर्श का केंद्र था।
लेकिन आज वही भूमि भगवा विमर्श और सांप्रदायिक राजनीति की आवाज़ों से गूंज रही है।
सिमरिया घाट, जो दिनकर जी का गाँव है, अब एक धार्मिक परियोजना का हिस्सा बना दिया गया है।
सरकार इसे “बनारस जैसा तीर्थ” बनाने की दिशा में काम कर रही है।
खबरों के अनुसार, हाल ही में बिहार सरकार ने मोकामा में तिरुपति बाला जी जैसे मंदिर की स्थापना की योजना को स्वीकृति दी है।
यह निर्णय औद्योगिक पुनरुद्धार के बजाय धार्मिक संरचनाओं पर सरकारी प्राथमिकता को दर्शाता है।
बदलती मानसिकता और टूटा औद्योगिक सपना
1950 के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था — “हमारे उद्योग और कारखाने ही हमारे लोकतांत्रिक समाज के मंदिर होंगे।”
आज वही “मंदिर” शब्द अपनी असल परिभाषा खो चुका है।
देश भर में मंदिरों की होड़ है, पर उद्योग मर रहे हैं।
मजदूर बेरोजगार हैं, जबकि पुरोहित वर्ग का विस्तार हो रहा है।
सरकारें जनता के रोजगार से अधिक धार्मिक प्रतीकों पर ध्यान दे रही हैं।
नेताओं और पुरोहितों के “रोजगार” एक-दूसरे से जुड़े हैं, लेकिन आम जनता के रोजगार के अवसर खत्म हो रहे हैं।
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बाहुबली राजनीति और लोकतंत्र की त्रासदी
ताजा घटनाओं में मोकामा फिर सुर्खियों में है —
यहाँ एक बाहुबली को दूसरे बाहुबली ने मार डाला।
इलाके की चर्चा अब विकास या उद्योग नहीं, बल्कि हत्या, अपराध और जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूम रही है।
आगामी चुनाव इसी उथल-पुथल के बीच होंगे, जहाँ जात-पात और धर्म की राजनीति एक बार फिर लोकतंत्र पर हावी होगी।
“ऊपर से फिटफाट, भीतर मोकामा घाट” —
यह केवल एक कहावत नहीं, बल्कि आधुनिक बिहार की सामाजिक, राजनीतिक और मानसिक स्थिति का सटीक प्रतिबिंब है।
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