Bihar Election 2025: 1995 की वो निर्णायक कहानी जिसने नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की सियासत को हमेशा के लिए बदल दिया

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1995 के चुनाव में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव आमने-सामने थे। टी. एन. शेषन की सख्ती ने बिहार के गरीबों और अति पिछड़ों को मतदान का अधिकार सुनिश्चित किया, जिसने पूरे राज्य की राजनीति की दिशा बदल दी।
Highlights
  • • 1995 का चुनाव बना बिहार की राजनीति का निर्णायक मोड़। • नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बीच शुरू हुई सियासी जंग की जड़ें इसी चुनाव में। • टी. एन. शेषन के कड़क प्रबंधन ने गरीब और अति पिछड़ों को मतदान का अधिकार दिलाया। • जनता दल ने 121 से बढ़कर 167 सीटें जीतीं, समता पार्टी केवल 7 पर सिमटी। • 2005 में नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों और दलितों के वोट से नई राजनीतिक दिशा दी। • बिहार की राजनीति में 36% अति पिछड़ों की भूमिका अब भी निर्णायक बनी हुई है। • विशेषज्ञों के अनुसार, बिहार की राजनीति एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर है।

1995 का चुनाव — जब समता पार्टी की एंट्री से बिहार की राजनीति में आया नया मोड़

मार्च 1995, बिहार विधानसभा चुनाव का वक्त था। उस दौर में जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार के समर्थन में जनता दल के 14 सांसदों ने अलग होकर “समता पार्टी” बनाई थी। यह नया राजनीतिक प्रयोग बिहार की राजनीति में चर्चा का केंद्र बन गया था। लालू प्रसाद यादव उस समय दानापुर विधानसभा से चुनाव लड़ रहे थे, जबकि उनके सामने समता पार्टी के उम्मीदवार थे पुराने समाजवादी नेता भोला प्रसाद सिंह।

चुनाव प्रचार का आखिरी दिन था। शाम को जब नीतीश कुमार दानापुर से लौट रहे थे, तब हनुमान मंदिर मोड़ पर केंद्रीय पुलिस बल की भारी तैनाती देखकर माहौल गंभीर था। उस समय के कड़क चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन के सख्त प्रबंधन ने पूरे चुनाव को अनुशासन में रखा था। जब किसी ने कहा, “शेषन ने पूरा बंदोबस्त किया है, अब लालू गए,” तो नीतीश कुमार का जवाब था —
“निष्पक्ष चुनाव का मतलब है हमारी हार।”

नीतीश कुमार का सटीक विश्लेषण — बूथ लूट रुकी तो गरीबों का वोट हुआ प्रभावी

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नीतीश कुमार ने तब जो बात कही, वह बेहद महत्वपूर्ण थी। उनका कहना था कि अगर बूथ लूट नहीं होगी, तो गरीब और पिछड़े वर्गों का वोट बाहर आएगा, और वही लालू प्रसाद की जीत तय करेगा। नीतीश कुमार के मुताबिक, उस समय बूथ नियंत्रित करने वाली दबंग जातियां — भूमिहार, राजपूत, कुर्मी और यादव — चुनाव को प्रभावित करती थीं।
उन्होंने कहा था कि “इनमें से तीन हमारे साथ हैं, लेकिन अगर निष्पक्ष मतदान हुआ तो गरीब वोट करेंगे और हम हार जाएंगे।”
नीतीश कुमार की यह भविष्यवाणी सच साबित हुई।

चुनाव के नतीजे आए तो लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में जनता दल को स्पष्ट बहुमत मिला।
1991 में जनता दल को 121 सीटें मिली थीं, जबकि 1995 में यह बढ़कर 167 सीटों तक पहुंच गईं।
इसके विपरीत, नीतीश कुमार की समता पार्टी केवल 7 सीटों पर सिमट गई, और उसे करीब 7 प्रतिशत वोट ही मिले।

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कर्पूरी ठाकुर से लेकर लालू तक — सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार

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इस दौर में लालू प्रसाद यादव का करिश्मा चरम पर था, लेकिन उन्होंने इस जीत को व्यक्तिगत उपलब्धि समझने की भूल की। दरअसल, यह उस “सोशलिस्ट लहर” की जीत थी, जिसकी नींव समाजवादियों और वामपंथियों ने लंबे संघर्ष के बाद रखी थी।

1977 में कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू किया और कोटा पॉलिटिक्स की शुरुआत की।
1990 का मंडल युग उसी राजनीति का विस्तार था।
इसके विरोध में कांग्रेस ने अपर कास्ट राजनीति को संगठित किया। 1980 से 1990 तक बिहार में कांग्रेस की सरकार रही, और उस दौरान 5 मुख्यमंत्री बने — सभी ऊंची जातियों से।
इस दशक में बिहार के कई कल-कारखाने बंद हुए, और सत्ता पर कुछ दबंग जातियों का वर्चस्व कायम रहा।
भागलपुर दंगों ने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर कर दिया।

लालू की रणनीति और उसकी सीमाएं

1995 के बाद लालू प्रसाद ने पिछड़े वर्गों की एकता को अपना आधार बनाया।
उन्होंने 1995 में गठित मंत्रिमंडल में हर पिछड़े समुदाय को प्रतिनिधित्व दिया और 1996 के विधान परिषद चुनाव में अपने 7 में से 6 उम्मीदवार अति पिछड़े वर्गों से चुने।
हालांकि जल्द ही लालू ने अपनी राजनीति में “माय समीकरण” (मुस्लिम-यादव) को केंद्र में रखकर अन्य वर्गों से दूरी बना ली।
इस रणनीति के चलते उनका राजनीतिक ग्राफ धीरे-धीरे गिरने लगा।
2000 के चुनाव में राजद 124 सीटों पर सिमट गया।
फिर 2005 में नीतीश कुमार और भाजपा के गठबंधन ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया — एक भावनात्मक झटका, जिसने लालू की नेतृत्वकारी भूमिका को समाप्त कर दिया।

जब टी. एन. शेषन और के. जे. राव ने बदल दी बिहार की चुनावी परंपरा

1995 के चुनाव में टी. एन. शेषन ने बूथ लूट पर कड़ा नियंत्रण किया।
उनकी नीतियों से गरीबों — खासकर अति पिछड़े और दलित वर्गों — का मतदान सुनिश्चित हुआ।
2005 में के. जे. राव ने इस सुधार को और आगे बढ़ाया।
नई तकनीकों की मदद से एक-एक बूथ पर निगरानी संभव हुई।
इससे बूथ लूट इतिहास बन गई और अति पिछड़ों और दलितों का वोट पूरी ताकत से सामने आया।

नीतीश कुमार का सामाजिक समीकरण और उसका प्रभाव

2005 के चुनाव में नीतीश कुमार ने पिछड़े, दलित और पसमांदा समुदायों को केंद्र में रखकर नई सामाजिक राजनीति गढ़ी।
इसका नतीजा हुआ कि अति पिछड़े वर्ग का 58% वोट जदयू को मिला, जबकि कुछ महीने पहले हुए चुनाव में यह सिर्फ 22% था।
नीतीश सरकार के 20% आरक्षण वाले फैसले, महादलित मिशन, और पसमांदा मुसलमानों के लिए योजनाओं ने व्यापक सकारात्मक असर छोड़ा।

हालांकि बाद में जब नीतीश कुमार ने सवर्ण आयोग बनाया, तो इन वर्गों में असंतोष भी बढ़ा — ठीक उसी समय नरेंद्र मोदी ने अपने जाति कार्ड के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में बढ़त बना ली।

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बिहार की राजनीति की नई दिशा — 36% अति पिछड़ों का निर्णायक असर

हालिया जाति सर्वेक्षण के अनुसार,
• अति पिछड़ा वर्ग: 36%
• पिछड़ा वर्ग: 27% (जिसमें यादव 14%)
• अनुसूचित जाति: 19%
• मुस्लिम: 17%

मुसलमानों का दो-तिहाई हिस्सा अति पिछड़ा समूह में आता है।
इस समय राजद का प्रभाव यादवों और अति पिछड़ों के एक हिस्से तक सीमित है,
जबकि भाजपा-जदयू गठबंधन अपर कास्ट वोट से तिगुना राजनीतिक लाभ उठा रहा है।

नीतीश कुमार की दूरदृष्टि और सामाजिक संतुलन नीति ने बिहार की राजनीति की दिशा तय की थी, लेकिन अब भी राज्य को ऐसे प्रबुद्ध नेतृत्व की जरूरत है जो जाति से ऊपर वर्ग भावना को मजबूत करे। जिस दिन ऐसा होगा, बिहार की राजनीति फिर एक निर्णायक करवट लेगी — शायद वैसी ही जैसी 1995 में टी. एन. शेषन के समय हुई थी।

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