पीढ़ीगत बदलाव के ‘मोड’ में भाजपा

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महेश खरे
(वरिष्ठ पत्रकार )
क्या भारतीय जनता पार्टी में जनरेशन चेंज (पीढ़ीगत बदलाव) हो रहा है? नरेन्द्र मोदी युग में क्या सोची समझी रणनीति के तहत पार्टी को युवा और ऊर्जावान बनाया जा रहा है? दिल्ली में भाजपा की शानदार चुनावी जीत और रेखा गुप्ता के सत्ता संभालने के बाद इस प्रश्न का उत्तर हां में दिया जा सकता है। राज्यों में एक के बाद एक पुरानी पीढ़ी धीरे-धीरे युवा चेहरों के लिए स्थान खाली करती जा रही है। संगठन और सरकार में यह बदलाव साफ तौर पर दिखाई देने लगा है।
दिल्ली में भगवा लहराने के साथ ही 21 राज्य ऐसे हैं जहां मोदी के चेहरे के बूते बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन सत्ता में है। 14 राज्यों में तो बीजेपी की सरकार है। 144 करोड़ की आबादी वाले देश की बात करें तो दक्षिण और पूर्व के गिने-चुने राज्यों को छोड़ कर आज 92 करोड़ की आबादी वाले भूभाग पर एनडीए अथवा बीजेपी सत्ता में है। दिल्ली की सत्ता बीजेपी के लिए बड़ी टेढ़ी खीर मानी जा रही थी। लेकिन अरविंद केजरीवाल की गलतियों और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे ने दिल्ली में बीजेपी का 27 साल से चला आ रहा सूखा हरियाली में तब्दील कर दिया। मोदी ने यहां भी अन्य राज्यों की तरह पहली बार की युवा विधायक रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाकर नारी शक्ति को सत्ता में हिस्सेदारी का भरोसा दिया है।
लगता है जैसे नया और युवा चेहरा भाजपा में सत्ता की प्राथमिकता हो गई है। दिल्ली के पहले हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, ओडिशा में भी नए अथवा युवा चेहरों को सत्ता की बागडोर सौंपकर मोदी देश को चौंकाने के साथ ही राज्यों में अपनी पार्टी की सरकारों को युवा बना चुके हैं। विकसित भारत के संकल्प को पूरा करने में कालांतर में इस युवा टीम का उपयोग पार्टी करना चाहती है। फिलहाल मोदी की टीम में वही आगे हैं जो 2047 तक विकसित भारत की कल्पना को साकार करने में उपयोगी हैं। आनंदी बेन पटेल को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाकर यूपी का राज्यपाल बनाए जाने के बाद बीजेपी में महिला मुख्यमंत्री की नियुक्ति का इंतजार किया जा रहा था। रेखा गुप्ता को दिल्ली का सीएम बनाकर बीजेपी ने इस कमी का भी संतोषजनक उत्तर दे दिया है।
इसके पहले ओडिशा सरकार में भी पहली बार की विधायक प्रवति परिदा को डिप्टी सीएम की जिम्मेदारी दी गई। राजस्थान सरकार में भी युवा महिला का प्रतिनिधित्व है। छत्तीसगढ़ में पहली बार विधायक बने दो युवा चेहरों अरुण साय और विजय शर्मा भी डिप्टी सीएम की शपथ ले चुके हैं। राज्यों में बीजेपी के मुख्यमंत्रियों की औसत आयु 55 वर्ष है। जबकि दिल्ली की नई सीएम 50 वर्ष की हैं। यानि योजनाबद्ध तरीके से मोदी नौजवानों को राज्य और केन्द्र की सत्ता का साथी बनाते जारहे हैं। इसमें गुजरात के भूपेन्द्र पटेल अपवाद हैं। पटेल जीवन के लगभग साठ बसंत देख चुके हैं। वैसे राजनीति में ‘साठा में पाठा’ का सिद्धांत चलता है। सरकारी सेवक जिस उम्र में रिटायरमेंट की रेखा पर पहुंचते हैं तब सियासत की उम्र जवानी की दहलीज पर खड़ी मानी जाती है। बीजेपी ने बहुत पहले ही 75 साल की लक्ष्मण रेखा को सिद्धांतत: स्वीकार कर लिया है।
रेखा गुप्ता के शपथ ग्रहण के बहाने एनडीए ने अपनी एकता का भी प्रदर्शन किया। मोदी-3 में बिहार और आंध्र की महत्वपूर्ण भूमिका सभी को पता है। आंध्र के सीएम चंद्र बाबू नायडू रामलीला मैदान में पहुंचे लेकिन बिहार के सीएम नीतीश कुमार को हर नज़र खोजती रही। जेडीयू के प्रवक्ताओं के अनुसार प्रगति यात्रा की व्यस्तता और स्वास्थ्य कारणों से बिहार के सीएम दिल्ली नहीं आ पाए। जेडीयू कोटे से मोदी सरकार में मंत्री ललन सिंह और नीतीश के करीबी कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा मंच पर बीजेपी नेताओं से मिलते जुलते और बधाई देते हुए दिखे। विपक्ष की शंकाओं और प्रश्नों के जवाब में यह भी कहा जा रहा है कि यदि नीतीश की सहमति नहीं होती या वे नाराज होते तो क्या उनके दोनों नेता शपथ समारोह और एनडीए की बैठक में शिरकत कर पाते? विपक्ष भी याद दिला रहा है कि 16 फरवरी को भी नीतीश दिल्ली आए थे। बीजेपी नेताओं से मिलने का कार्यक्रम था, पर बाला-बाला पटना लौट गए। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के निधन के बाद भी नीतीश उनके परिवार से मिलने दिल्ली आए। तब भी राज्यपाल की शपथ के बहाने ‘किसी’ से बिना मिले लौट गए। शायद इसीलिए रामलीला मैदान में नीतीश की अनुपस्थिति चर्चा में रही। साल के अंत में बिहार विधान सभा के चुनाव होने के कारण इन चर्चाओं को महत्व मिला। बीजेपी नीतीश की अगुवाई में चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है।
एक ओर जहां शपथ समारोह के बहाने एनडीए ने एकजुटता का प्रदर्शन किया। वहीं इंडिया गठबंधन के प्रमुख घटक आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच चुनावी एकता को लेकर असमंजस के बादल छंट नहीं पा रहे। चुनाव बाद भी कांग्रेस बीजेपी से ज्यादा केजरीवाल के खिलाफ मुखर बनी हुई है। ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और शरद पवार समेत एनडीए के अधिकांश बड़े चेहरे खुलकर ‘आप’ के साथ रहे। कांग्रेस अपनी खिचड़ी अलग पकाती रही। नतीजा जनता के सामने है। ‘आप’ का कहना है कि यह गठबंधन राज्यों के लिए नहीं लोकसभा चुनाव के लिए बना था। वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया ने ऐलान कर दिया है कि यूपी में इंडिया गठबंधन जारी रहेगा। बिहार में तेजस्वी यादव की टीम के सुर भी कुछ ऐसे ही हैं।
कांग्रेस अपने अस्तित्व की चिंता में है और यह मान कर चल रही है कि राज्यों में ताकतवर क्षेत्रीय दलों ने ही उसका वोट शेयर हड़पा है। अगर वह पूरी शक्ति से चुनाव नहीं लड़ेगी तो और अधिक सिकुड़ती जाएगी। इसी विचार के तहत दिल्ली चुनाव में कांग्रेस अकेले उतरी। हालांकि वह जीरो की लक्ष्मण रेखा पार नहीं कर पाई। वोट शेयर भी दहाई का आंकड़ा नहीं छू पाया। जहां तक पश्चिम बंगाल का प्रश्न है वहां पिछले चुनावों में ममता बनर्जी और कांग्रेस के बीच बात नहीं बनी। आगे भी टीएमसी अपने बूते ही चुनाव लड़ेगी।
बंगाल के पहले बिहार में चुनाव होने हैं शायद इसीलिए अब बीजेपी ने अपना रुख बिहार की ओर कर लिया है। 24 फरवरी को भागलपुर में पीएम नरेन्द्र मोदी जा रहे हैं। इसके पहले बिहार के हर जिले में एनडीए के सम्मेलन हो चुके हैं। इन सम्मेलनों में एनडीए के हर घटक के नेता की उपस्थित सुनिश्चित की गयी। नीतीश की यात्रा चल ही रही है। एनडीए के चुनावी चेहरे भी वही रहेंगे। महाराष्ट्र की तर्ज पर चुनाव बाद शायद संख्याबल के आधार पर सीएम तय हो जाएगा।
दरअसल बिहार में नीतीश कुमार बीजेपी के लिए अनिवार्य बन गए हैं। वैसे भी नीतीश जिस ओर रहे सरकार उसी की बनी। बीजेपी की तमाम कोशिशों के बाद भी नीतीश की टक्कर का एक भी नेता तैयार नहीं किया जा सका है। कहा तो यह भी जा रहा है कि केजरीवाल की टक्कर का चेहरा भी तो दिल्ली में नहीं था। फिर भी आज की स्थिति में बीजेपी बिहार में कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती। कॉडर और विचारधारा के बूते उसकी कोशिश ज्यादा से ज्यादा सीटों पर प्रत्याशी उतारने की होगी। यह भी कितना संभव हो पाएगा आज इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। दिल्ली की तरह पश्चिम बंगाल की सत्ता भी बीजेपी के लिए चुनौती रही है। विधानसभा चुनाव में हालांकि बीजेपी ने अपनी संख्या 3 से 77 तक बढ़ाने में सफलता पाली है। लोकसभा चुनाव में भी दीदी का ही पलड़ा भारी रहा।
कहते हैं दिल्ली की सत्ता का रास्ता बिहार और यूपी से होता हुआ जाता है लेकिन दिल्ली विजय के बाद बीजेपी की चुनावी सियासत का रास्ता बिहार, पश्चिम बंगाल और वापस उत्तर प्रदेश की ओर जाता दिखाई देने लगा है। तभी तो दिल्ली में एनडीए की बैठक के बाद बीजेपी के महासचिव विनोद तावड़े ने कहा कि सभी ने आगामी डेढ़ साल में होने वाले राज्यों के चुनाव एकजुटता के साथ लड़ने का संकल्प लिया है। इस अवधि में बिहार और बंगाल के चुनाव हैं। इसके बाद सियासी दल यूपी की चुनावी चुनौती का सामना करने और भाग्य आजमाने के उपक्रम में जुट जाएंगे।
दिल्ली में आधा इंजन की सरकार है। यहां सत्ता की सभी चाभियां उप राज्यपाल (एलजी) के पास हैं। इसके बाबजूद शपथ समारोह के भव्य आयोजन ने दिल्ली की सत्ता का महत्व समझा दिया है। अब दिल्ली में सत्ता के केन्द्र नए सिरे से परिभाषित किए जाएंगे। एलजी और सरकार के बीच टकराव की राजनीति का अंत केजरीवाल की पराजय के साथ ही हो गया। अब एलजी दिल्ली में चुनावी वचन निभाने की राह में सीएम के साथ खड़े दिखेंगे। वैसे भी एलजी वीके सक्सैना का कार्यकाल निकट भविष्य में ही पूरा होने को है। दिल्ली में केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी की लड़ाई बखूबी लड़ते रहने का पुरस्कार उन्हें मिलना तय है। हो सकता है दिल्ली में ही उनका कार्यकाल बढ़ा दिया जाए अथवा राज्यपाल के रूप में पदोन्नत करके किसी बड़े राज्य में भेज दिया जाए।

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