RK Sinha, Founder SIS, Former member of Rajya Sabha, at his residence, for IT Hindi Shoot. Phorograph By - Hardik Chhabra.
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एक बार फिर से देश लोकसभा चुनावों के लिए तैयार है। लोकसभा चुनावों की घोषणा अब कभी भी हो सकती है। देश में चारों तरफ लोकसभा चुनाव का माहौल बनता ही चला जा रहा है। वास्तव में यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण और खासमखास उत्सव भी है। इस उत्सव में इसबार 86 करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकेंगे। इनमें 47 करोड़ महिला वोटर होंगी। इस उत्सव में देश के 28 राज्य और नौ केंद्र शासित शामिल होंगे। 

लोकसभा चुनावों को सफलता पूर्वक करवाने की जिम्मेदारी डेढ़ करोड़ सरकारी अफसरों   पर होगी। करीब सवा करोड़ मतदान केन्द्रों में जाकर मतदाता देश के 543 लोकसभा सांसदों का चुनाव करेंगे। यह सब आंकड़ें गवाह हैं कि भारत से बड़ा और व्यापक संसदीय चुनाव विश्व भर में  कहीं और नहीं होता। बहरहालभारत में अब तक लोकसभा के 17 चुनाव हो चुके हैं। पहली लोकसभा के चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच कराए गए थे। उस समय लोकसभा में कुल 489 सीटें थीं। लेकिन,  संसदीय क्षेत्रों की संख्या 401 थी। लोकसभा की 314 संसदीय सीटें ऐसी थीं जहां से सिर्फ़ एक-एक प्रतिनिधि चुने जाने थे। वहीं 86 संसदीय सीटें ऐसी थी जिनमें दो-दो लोगों को सांसद चुना जाना था। वहीं नॉर्थ बंगाल संसदीय क्षेत्र से तीन सांसद चुने गए थे। किसी संसदीय क्षेत्र में एक से अधिक सदस्य चुनने की यह व्यवस्था 1957 तक जारी रही।

 आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के सामने  कांग्रेस के नेतृत्व वाला  आई.एन.डी.आई.ए. के नाम से कई राजनीतिक दलों का एक समूह होगा। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि दो महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दल,ओडिसा में  बीजद और पॅंजाब में अकाली दल अकेले ही चुनाव लड़ेंगे।

 बहरहालहर बार की तरह से चुनाव कराने की जिम्मेदारी  रिटर्निंग अधिकारियों की होगी। हरेक संसदीय क्षेत्र के लिए एक रिटर्निंग अधिकारी नियुक्त होता है। आमतौर परजिला मजिस्ट्रेट (डीएम) अपने जिले के एक या एक से अधिक सॅंसदीय क्षेत्रों के लिये रिटर्निंग ऑफिसर होता है!  लेकिन,  बहुत से ऐसे सॅंसदीय क्षेत्र ऐसे भी होते हैं जो दो या तीन छोटे जिले में बॅंटे होते हैंजिनमें रिटर्निंग ऑफिसर पड़ोसी जिले से भी नियुक्त हो सकता है। फिर, चुनावों पर पर्यवेक्षकों की नजर भी रहती है।  केंद्रीय सशस्त्र पुलिस के  लाखों कर्मियों के साथ-साथ स्थानीय पुलिस  मिलकर चुनाव की प्रक्रिया को पूरा करवाते हैं।

 अगर हम इतिहास के पन्नों को खंगाले तो पाते हैं कि संविधान सभा ने नवंबर 1949 में देश चुनाव आयोग की स्थापना को अधिसूचित किया थाऔर अगले वर्ष मार्च मेंभारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) के  अफसर श्री सुकुमार सेन को भारत का पहला मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया। वे पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्य सचिव रहे थे। सुकुमार सेन की ही देखरेख में देश का पहला लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ था। वे 21 मार्च 1950 से 19 दिसंबर 1958 तक भारत के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त रहे। उन्होंने ही स्वतंत्र भारत के पहले दो आम चुनाव1951-52 और 1957 को सम्पन्न करवाया था। उन्होंने 1953 में सूडान में पहले मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में भी कार्य किया था। उनकी शिक्षा प्रेसीडेंसी कॉलेजकोलकाता और लंदन विश्वविद्यालय में हुई थी। बाद में उन्हें गणित में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया। 1921 मेंसेन भारतीय सिविल सेवा में शामिल हुए और एक आईसीएस अधिकारी और न्यायाधीश के रूप में विभिन्न जिलों में कार्य किया। 1947 मेंउन्हें पश्चिम बंगाल का मुख्य सचिव नियुक्त किया गया। 

पहले आम चुनाव में 21 या उससे अधिक उम्र के करीब 18 करोड़ मतदाता थे पूरे देश में।  इनमें से लगभग 85 प्रतिशत पढ़ या लिख नहीं सकते थे। प्रत्येक मतदाता की पहचाननाम और पंजीकरण किया जाना था। मतदाताओं का यह पंजीकरण महज़ पहला कदम था। फिरमतदान केंद्रों को उचित दूरी पर बनाया जाना थाऔर ईमानदार और कुशल मतदान अधिकारियों की भर्ती की जानी थी। यह सब काम सुकुमार सेन के नेतृत्व में चुनाव आयोग कर रहा था। 

 इस बीच24 फरवरी और 14 मार्च 1957 के बीच हुए दूसरे चुनाव के दौरान भी सुकुमार सेन मुख्य चुनाव आयुक्त बने रहे। लोकसभा के दूसरे चुनाव में बिहार के बेगुसराय जिले में बूथ कैप्चरिंग की पहली घटना भी देखी गई। यह भूमिहार बहुल बेल्ट थीऔर इस क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ भी माना जाता था। हालांकि 1989 में ही बूथ कैप्चरिंग‘ शब्द को औपचारिक रूप से परिभाषित किया गया था और इसके लिए दंड भी निर्धारित किए गए थे। 1970 और 1980 के दशक तकबूथ कैप्चरिंग उत्तर प्रदेशबिहार और पश्चिम बंगाल में काफी प्रचलित हो गई थीहालाँकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने बूथ प्रबंधन‘ नामक एक चीज़ का अभ्यास किया थाजिसमें इनके  कैडर के कार्यकर्ता एक लाइन  में खड़े होकर मतदान करते थे।

 यह मानना होगा कि पहले चुनाव आयुक्त के रूप में जिस परंपरा को सुकुमार सेन ने शुरू किया था उसे आगे लेकर जाने वाले कुशल चुनाव आयुक्तों में टी.एन.शेषन ने  सबसे अग्रणी भूमिका निभाई थी। आज भी बुद्धिजीवी समाज  वाले तो यही कहते हैं कि अगर  टी. एन. शेषन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त न बनते,  तो देश में चुनावों के नाम पर धोखाधड़ी  और  धांधली का आलम जारी ही रहता। उन्होंने 1990 के  दशक में  चुनाव  आयोग के प्रमुख पद पर रहते हुए चुनाव सुधारों को सख्ती से लागू करने का अभियान शुरु किया।  देश को उनके द्वारा किए महान कार्यों की जानकारी तो होनी ही चाहिए। शेषन ने उन गुंडा तत्वों पर ऐसी चाबुक चलाई , जिसने  धन और बल के सहारे सियासत करने वालों को जमीन पर उतारकर पैदल कर दिया गया था। शेषन ने अपने साथियों में यह विश्वास जगाया कि  उन्हें चुनाव की सारी प्रक्रिया को ईमानदारी से अंजाम देना चाहिए। उनसे पहले के कुछ चुनाव आयुक्तों पर आरोप लगते रहते थे कि वे पूरी तरह से सरकार के इशारों पर ही चुनाव करवाते हैं। वे कभी इस बात पर जोर भी नहीं देते थे कि चुनाव तटस्थ तरीके से हो। वे सत्तासीन पार्टी के  एजेंट  मात्र बन  कर रह जाते थे। वे कभी चुनाव सुधारों की ओर गंभीर तक नहीं रहे। एक तरह से कहें कि चुनाव आयुक्त का पद शासक वर्ग के चहेते रिटायर होने वाले किसी सचिव को तीन साल तक का पुनर्वास का कार्यक्रम बनकर रह गया था।  शेषन ने एक नई परंपरा की शुरुआत की थी। उन्होंने साबित किया था कि इस सिस्टम में रहते हुए भी बहुत कुछ सकारात्मक किया जा  सकता है। वे अपने  दफ़्तर में बैठकर काम करने वाले अफ़सर नहीं थे। वे चाहते थे  कि  चुनाव सुधार करके  भारत  के लोकतंत्र को मजबूत किया जाए।  शेषन ने  अपने लिए एक कठिन और कठोर राह को पकड़ा। उन्होंने चुनाव सुधार का ऐतिहासिक कार्य करके विश्व भर में नाम कमाया। उन्होंने देश को जगाने के उद्देश्य से 1994 से 1996 के बीच चुनाव सुधारों पर देश भर में सैंकड़ों जन सभाओं को भी संबोधित किया। अब जबकि देश आगामी लोकसभा चुनावों के लिए तैयार है तो सुकुमार सेन जी और टी.एन. शेषन साहब का स्मरण करना भी जरूरी हो गया है।

(लेखक  वरिष्ठ संपादकस्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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