बदहाली का जीवन जीने को विवश है गाड़िया लोहार समुदाय

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देवेन्द्रराज सुथार

जालोरराजस्थान


‘न हो कमीज़ तो पांव से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए. ‘दुष्यंत कुमार’ का यह शेर राजस्थान के जालोर जिला स्थित बागरा कस्बे में बदहाली का जीवनयापन कर रहे गाड़िया लोहार समुदाय की कहानी को बयां करता है. कड़ाके की ठंड में भी इस परिवार के पास न तो मकान है और न ठीकठाक गर्म कपड़े, जिससे कि वह मौसम की क्रूरता से लड़ सके. हालांकि, इस परिवार को मौसम की क्रूरता से कोई गिला-शिकवा नहीं है, मलाल है तो स्थानीय प्रशासन, सरकार व तमाम जनप्रतिनिधियों से, जो चुनावी समय में मूलभूत सुविधाओं से वंचित इस समुदाय के उत्थान के लिए हर संभव वादे करते हैं और चुनाव के बाद भूल जाते हैं. नतीजतन यह समुदाय इसी तरह 12 माह सड़क किनारे दिन-रात कठिन परिस्थितियों का सामना करता रहता है.


कस्बे के बस स्टैंड स्थित अंबा माता मंदिर के समीप गाड़िया लोहार के नारायण लाल अपनी पत्नी, दो पुत्र व तीन पुत्रियों के साथ अस्थायी रूप से रह रहे हैं. यह लोग अपना दैनिक काम चाहे वह नहाना-धोना, खाना पकाना या सोना हो, सभी खुले आकाश के तले करने को मजबूर हैं. नन्ही उम्र में शिक्षा के अधिकार से वंचित नारायण लाल के बेटे और बेटियां अपने पिता के काम में हाथ बंटाती हैं. पिता लोहे के औजार जैसे चिमटा, हंसिया, खुरपी, कुल्हाड़ी, करछली आदि बनाते हैं और बेटे और बेटियां उन्हें घर-घर जाकर बेचते हैं. नारायण लाल बताते हैं कि दिन रात मेहनत के बावजूद केवल इतनी ही आमदनी होती है कि परिवार का किसी प्रकार गुज़ारा चलता है, ऐसे में उन्हें पढ़ाने की कहां से सोचें? समुदाय का इतिहास बताते हुए नारायण लाल कहते हैं कि “16वीं शताब्दी में उनके पूर्वज महाराणा प्रताप की सेना में थे, लेकिन जब मेवाड़ हार गया और मुगलों के हाथ में चला गया, तो इस अपमान और दुख की ज्वाला में जलते हुए गाड़िया लोहार समाज के लोगों ने प्रण किया कि जब तक संपूर्ण मेवाड़ को मुगलों से वापस नहीं लेंगे, तब तक अपने घर मेवाड़ नहीं लौटेंगे. तभी से यह समाज स्थाई रूप से निवास नहीं कर पाया.”


नारायण लाल की पत्नी सीता देवी कहती हैं कि लोहारी के काम से प्रतिदिन मात्र 200 रुपए की कमाई हो पाती है, जिससे उन्हें अपनी आजीविका चलाने में काफ़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. वह कहती हैं कि आधुनिक तकनीक के विकास ने लोहार समाज को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है. पिछले कई दशकों से लोहे पर चोट करने वाले इस समुदाय को स्वयं चोटों का सामना करना पड़ रहा है. घर के सभी सदस्य लोहा पीटने में लगे रहते हैं पर आज के मशीनी युग में इनके हाथों के बनाए चिमटे, खुरपी बड़ी-बड़ी कंपनियों के बनाए सस्ते एवं चमचमाते उत्पादों के सामने दम तोड़ने लगे हैं. ऐसे में बच्चों को पढ़ाने की चिंता करें या पेट की आग बुझाने की चिंता करें? इसी समुदाय से जुड़ी एक अन्य परिवार की युवती सविता कुमारी कहती हैं कि हमें रोजगार के लिए जगह-जगह भटकना पड़ता है. इसलिए चाहकर भी बच्चों का नामांकन स्कूल में कराना संभव नहीं है. यह सच है कि कई सरकारी योजनाएं हमारे उत्थान के लिए होती हैं, लेकिन सही क्रियान्वयन न होने के कारण उन योजनाओं का लाभ हम तक नहीं पहुंच पाता है. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतें हमें तभी उपलब्ध होंगी, जब हम अपने मूल स्थान पर पुनर्वासित होंगे. हम दो जून की रोटी के लिए गांव-गांव भटकते हैं. सविता के अनुसार संबंधित गांव के राजस्व रिकॉर्ड में हमारा नाम न होने के कारण हमें सरकारी सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है. इसी समाज की एक अन्य युवती विमला बताती है कि आज के समय में कौन बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता? लेकिन हमारे समाज को आज भी हेय दृष्टि से देखा जाता है. हमें सम्मान तभी मिलेगा, जब हमें समाज की मुख्यधारा में लाने के सार्थक प्रयास किए जाएंगे. 

इस संबंध में युवा गाड़िया लोहार विकास संस्थान राजस्थान प्रदेश के मीडिया प्रभारी धनराज लोहार रोहट का कहना है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हमारा समाज आर्थिक, राजनीतिक व शैक्षणिक स्तर पर सक्षम दिखाई नहीं देता है. इसका मुख्य कारण आजादी से पहले ली गई प्रतिज्ञा को पुरखों ने अनवरत जारी रखा. जब सरकार द्वारा किसान वर्ग को अपनी जमीन पर मालिकाना हक दिया जा रहा था, उस समय इस समाज का मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था, उस समय उनको पता नहीं था कि सरकार कृषि भूमि, आवासीय भूमि का मालिकाना हक दे रही है. लिहाजा आज यह समाज कृषि भूमि व आवासीय भूमि से कोसों दूर है. धनराज लोहार के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में यदि सरकार विशेष दर्जा देकर समाज को शिक्षा से जोड़ने के लिए योजना बनाए, तो निश्चय ही परिवर्तन होगा. सामाजिक कार्यकर्ता दिलीप डूडी कहते हैं कि विडंबना है कि विकास के नाम पर अरबों रुपए की जन कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद किसी ने इस समुदाय की सुध नहीं ली. इनके पास न तो राशन कार्ड है और न ही सिर छिपाने की स्थाई जगह. वहीं आजादी के बाद लंबे अरसे तक मतदाता सूची में इनका नाम नहीं जुड़ने के कारण भी यह समुदाय सभी प्रकार की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. नारायण लाल के आवास के संबंध में बागरा कस्बे के सरपंच सत्य प्रकाश राणा कहते हैं कि प्रधानमंत्री आवास योजना की प्रक्रिया अभी पेंडिंग है. इसके तहत हमारे पास कुल 52 आवेदन आए हैं. इस संदर्भ में हम जल्द ही उच्च अधिकारियों से बात करेंगे.


भारत के घुमंतू / अर्ध-घुमंतू और विमुक्त जनजातियों के राष्ट्रीय आयोग के ड्राफ्ट सूची के अनुसार, गाड़िया लोहार समुदाय को घुमंतू जनजाति के रूप में स्वीकार किया गया है, जो ऐतिहासिक रूप से वंचित और समाज के हाशिए पर रहने वाला समुदाय होने के कारण आवास, भूमि और रोजगार की सुविधाओं से वंचित रहे हैं. इस संबंध में गठित डॉ. बालकृष्ण रैके आयोग की रिपोर्ट (2008) के अनुसार भारत के लगभग 89 प्रतिशत विमुक्त जनजातियों तथा 98 प्रतिशत घुमंतू/अर्ध-घुमंतू समुदायों के पास कोई ज़मीन नहीं है, जबकि 11 प्रतिशत घुमंतू समुदायों और 8 प्रतिशत विमुक्त जनजातियों का सार्वजनिक भूमि पर निवास है. कमोबेश इन परिवारों के 57 प्रतिशत लोग झुग्गी / अस्थायी संरचना वाले आवास में रहते हैं और अधिकांश लोग आवश्यक सुविधाओं जैसे पानी, बिजली, स्वच्छता या सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से वंचित हैं. यह समुदाय इसलिए भी योजनाओं का लाभ लेने में असमर्थ रहा है, क्योंकि न तो उनकी जाति की स्पष्टता है और न ही उनके पास जाति प्रमाण पत्र है. बहुत सारे घुमंतू जनजातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है, लेकिन अधिकतर राज्यों में गाड़िया लोहारों को अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) की श्रेणी में रखा गया है. राजस्थान में गाड़िया लोहारों को अति पिछड़े वर्ग (एमबीसी) में रखा गया है और सरकारी नौकरियों में एक प्रतिशत आरक्षण दिया गया है, लेकिन इस समुदाय में शिक्षा-चेतना न के बराबर है.


गाड़िया समुदाय के साथ हुए अन्याय का दर्द और गहरा हो जाता है जब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए उनके मानवाधिकारों जैसे जीवन जीने और आवास के अधिकार का खुला उल्लंघन होता है. मूलभूत सुविधाओं जैसे शौचालयों और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव से बच्चों और महिलाओं का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है और उनके निजता, सुरक्षा, सम्मान और हिफ़ाज़त जैसे मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है. आंगनबाड़ी व स्कूल का अभाव, जबरन बेदखली और भेदभाव के कारण बच्चों को शिक्षा के मानवाधिकार से वंचित होना पड़ा है. आजादी के बाद से ही विभिन्न सरकारों द्वारा किए गए वादों के बावजूद योजनाओं के खराब क्रियान्वयन और सरकारों की लगातार उदासीनता के कारण यह समुदाय हाशिए पर जा चुका है. (चरखा फीचर)

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