गुलाम भारत की राजनीति में गाँधी के अवतरण को याद कीजिये। 24 वर्ष का एक भारतीय नौजवान 1893 में दक्षिण अफ्रीका एक मुकद्दमे के सिलसिले में वकील बन कर गया और वहां ‘सोसल जस्टिस’ के लिए लड़ता रहा। वही व्यक्ति जब 1915 में हिंदुस्तान लौटा तो उसकी पहचान 45 साल के महात्मा की बन चुकी थी। तब भारत की आजादी के लिए लड़ रहे लोगो का एक समूह गांधी का अपने देश मे बेसब्री से इंतेजार कर रहा था। भारत मे 1915 से आजादी मिलने तक अगले 32 वर्षो तक गांधी सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, स्वावलम्बन और अस्पृश्यता उन्मूलन के साथ प्रयोग करते रहें। उन 32 वर्षो में दुनिया ने बहुत सी कठिनाइयों को देखा। दो विश्वयुद्ध, वैचारिक रूप से कार्ल मार्क्स के साम्यवाद का उभार। उनके अनुयायी लेनिन, स्टालिन और माओ का खून खराबे के साथ राजनीतिक उत्थान और विश्व पटल पर तानाशाह के रूप में हिटलर और मुसोलिनी का आतंक। तब दुनिया भर में मार काट के लिए उर्वर जमीन पर पर अहिंसा, सर्वधर्म सदभाव और सत्याग्रह लेकर गांधी का उभरना किसी अजूबे से कम नही था
महात्मा गांधी के उभार को समझने के लिए उनके व्यक्तित्व और परवरिश को समझना जरूरी है। उन्हें समझने के लिए उनकी दिनचर्या रहन सहन और कार्यकलापों पर गौर करना जरूरी है। गांधी एक शांतिप्रिय बनिया परिवार मे पैदा हुए। किसी कायस्थ परिवार के बच्चे की तरह शिक्षा दीक्षा मिली और बैरिस्टरी की पढ़ाई की। उनकी दिनचर्या और पूजापाठ उनमे किसी ब्राम्हण की आत्मा का एहसास देती थी और पहनावा किसी शुद्र की छवि जैसी थी। इस ‘लाइफस्टाइल’ ने उनको जातीय या पंथीय पहचान से दूर कर दिया था। आज के समय जब जातीय या धार्मिक दकियानूसी अपने चरम पर है। राजनेता जाति और धर्म को हथियार बना कर जनता का मानसिक शोषण कर रहे हैं, गांधी को याद करना जरूरी है। गांधी ने किसी धर्म या पंथ का आविष्कार नही किया लेकिन जीवन दर्शन के वो दृश्य दिखाये जो आज भी प्रासंगिक हैं। शायद यही वजह है कि दुनिया के असंख्य देशो में उनकी मूर्तियां लगी हैं और सैकड़ो विदेशी विश्वविद्यालयों में उन पर शोध जारी है।
अगर परिवेश की बात करें तो किशोरावस्था में जब गांधी स्कूल में पढ़ रहे थे तब उनका सबसे करीबी मित्र एक मुसलमान था और लन्दन में पढ़ते हुए जिस व्यक्ति के साथ रहते थे वो एक ईसाई था। गांधी की खुशकिस्मती थी कि उनका ईसाई मित्र उन्ही की तरह शाकाहारी था। जब गांधी दक्षिण अफ्रीका आये तो वहां कई धर्मावलंबियों से उनका साक्षात्कार हुआ। वहां जिन भारतीय गरीबो की रक्षा के लिए वो उठ खड़े हुए उनमे ज्यादातर तमिल थे। उनके साथ समय बिताते हुए उनके अंदर से भाषायी दकियानूसी और अंग्रेजी की ‘सुपरर्मेसी’ भी तरल हो कर बह गयी। वो बीज उनके व्यक्तित्व में पड़ने लगे थे जो एक साधारण इंसान को महात्मा बनाते हैं।
गांधी ने जो प्रयोग किये वो तब की दुनिया के लिए अजूबे थे। वह दौर कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों के प्रयोग का था। शोधार्थी थे लेनिन, स्टालिन और माओत्सेतुंग। इस प्रयोग में खूब खून खराबा हुआ। दूसरी तरफ हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह नायकत्व की एक नई परिभाषा गढ़ रहे थे। वैसे समय मे गांधी ने कोंग्रेस का नेतृत्व एक नए अंदाज में किया। ये वो कांग्रेस थी जिसके जनक एक अंग्रेज ए ओ ह्यूम थे। कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता दादा भाई नोरोजी, वोमेश चन्द्र बैनर्जी, महादेव गोविंद रानाडे या गोपाल कृष्ण गोखले तक की कांग्रेस एक शहरी जमात की प्रतिनिधि थी। ग्रामोदय की बात करते हुए उसे आवाम तक तो गांधी ही ले गए। वस्तुतः गांधी महात्मा इस लिए हुए क्योंकि उन्होंने सत्य के साथ राजनीतिक प्रयोग किये। उनसे पहले राजनीति छल कपट और चालाकी से पहचानी जाती थी। गांधी अपने सत्य पर अंत तक अडिग रहे और इसके प्रयोग के दौरान कभी विचलित नही हुए। गांधी ने सत्य के साथ अहिंसा को जोड़ा। अंग्रेजी साम्राज्यवाद का भरपूर विरोध लेकिन हिंसा बिल्कुल नही। कुछ समीक्षकों ने तो इसे पागलपन कहा। विदेशियों ने खिल्ली उड़ाई लेकिन गांधी के पास वो मन्त्र था जो उन्हें दक्षिण अफ्रीका की सामाजिक प्रयोगशाला में मिला था। हिंदुस्तान आने के बाद सत्य और अहिंसा का उनका पहला प्रयोग 1917 में ‘चंपारण सत्यग्रह’ सफल रहा। वहां सविनय अवज्ञा के साथ उन्होंने नील खेत के मजदूरों को न्याय दिलाया। फिर क्या था गांधी के कदम आगे बढ़ चले।
1920 में शुरू हुआ अंग्रेजो के खिलाफ असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था लेकिन 5 फरवरी 1922 को चौरी चौरा कांड के बाद गांधी ने ये कह कर उसे वापस ले लिया कि वो हिंसक आंदोलन का नेतृत्व नही करेंगे। तब गांधी ने आलोचकों की बिल्कुल परवाह नही की। जो विदेशी गांधी को एक नंगे फकीर की दृष्टि से देखते थे उन्ही की मशहूर ‘टाइम मैगज़ीन’ ने ‘दांडी’ मार्च के बाद 1930 में उन्हें ‘मैन ऑफ द ईयर’ के तमगे से नवाज दिया।
गांधी हिंदुस्तान में सिर्फ आजादी की लड़ाई नही लड़ रहे थे उन्होंने जनता की आर्थिक उन्नति और सामाजिक सुधारो पर लगातार काम किया। ग्रामोदय,”सर्वोदय, ‘स्वावलंबन’ और ‘अस्पृश्यता उन्मूलन, उनके एजेंडे में था। वो खुद बकरी पालते थे। चरखा काटते थे ताकि अनुकरण से जनता एक जीवन पद्धति को हासिल करे और स्वावलंबी बने। ब्रम्हचर्य के पालन के साथ उन्होंने उतना ही पहना या खाया जितना एक औसत भारतीय को हासिल था। इस क्रम में उनका शरीर भले जर्जर हो गया लेकिन आत्मबल में इजाफा होता रहा।
जातीय विभेद और वर्गसंघर्ष को खत्म करना, खासकर समाज के शोषित और वंचित तबके को उपर लाना उनके खास एजेंडे में था। दलित वर्ग की खराब हालत और अमर्यादित स्थिति को देखते हुए ही उन्होंने ना केवल उन्हें ‘हरिजन’, ईश्वर का आदमी नाम दिया बल्कि इसी नाम से एक पत्रिका निकाल कर उसका सम्पादन भी किया। ये देश का दुर्भाग्य रहा कि आजादी मिलने के कुछ महीनों बाद ही अहिंसा के पुजारी की नृशंस हत्या कर दी गयी और आजाद भारत में गांधी के सपनों में मचल रहे स्वराज, सुशासन, नैतिक राजनीति, सत्ता के विकेंद्रीकरण, सभी को समान शिक्षा और धार्मिक सद्भभाव के लक्ष्य अधूरे रह गए।आजाद भारत गांधी के सपनो के अनुकूल नही बन सका। उल्टे देश मे एक ऐसा तबका पनप आया जिसने उनको हिन्दू विरोधी और ब्रिटिश परस्त तक कह डाला। लेकिन दुनिया भर में आज भी गांधी उतनी ही शिद्दत से लोगो के दिलो में बसे हुए हैं। उस गुलाब की तरह जो जाति और मजहब की पहचान किये बगैर खुशबू बिखेरता रहता है। आज दुनिया के देश जिस तरह हिंसक संघर्ष से जूझ रहे है, वैसी हालत में गांधी के विचारों का मंथन ही निदान की ओर ले जाएगा।