संघर्ष से सफलता तक: 60 वर्षों की लंबी यात्रा
झारखंड राज्य की स्थापना के 25 वर्ष पूरे हो चुके हैं — यह सिर्फ एक संख्या नहीं, बल्कि उन संघर्षों, सपनों और बलिदानों की जीवंत कहानी है जो इस भूमि ने दशकों तक जिए। 25 वर्ष का झारखंड अब युवावस्था में प्रवेश कर चुका है, और इसके विकास की गाथा लगातार समृद्ध हो रही है।
लेकिन यह याद रखना आवश्यक है कि अलग राज्य की प्राप्ति रातोंरात नहीं हुई। यह लगभग 60 वर्षों के सतत आंदोलन, संघर्ष और प्रतिरोध का परिणाम था।
राज्य की मांग करने वाले आंदोलनकारियों को प्रतिकार, फटकार और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। कई नेता जिन्होंने यह सपना देखा, आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी विरासत दूसरी पीढ़ी तक पहुंची जिसने संघर्ष को आगे बढ़ाया। तीसरी पीढ़ी अब उस स्वतंत्र राज्य में सांस ले रही है जिसका सपना उनके पूर्वजों ने देखा था।
आदिवासी अस्मिता की पहली गूंज: 1939 में ‘झारखंड’ का नारा

1939 में ‘छोटा नागपुर आदिवासी सभा’ के मंच से झारखंड की मांग पहली बार उठी थी। सभा की अध्यक्षता मोरंग गोमके जयपाल सिंह ने की थी — जो आगे चलकर झारखंड आंदोलन की बुनियाद बने।
यह वह समय था जब आदिवासी समाज अपने सांस्कृतिक और सामाजिक अधिकारों के लिए एकजुट होना शुरू कर चुका था। इस प्रस्ताव ने आने वाले दशकों की दिशा तय कर दी थी, जिसने झारखंड को अलग राज्य के रूप में जन्म देने की राह बनाई।
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राजनीतिक अस्वीकार और जनता का संघर्ष
2 जनवरी 1952 को रांची के मोराबादी मैदान में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था — “झारखंड-फारखंड कुछ नहीं मिलेगा।”
उनका यह वक्तव्य आंदोलनकारियों के लिए एक झटका था। इस बयान में उस दौर की तानाशाही और सत्ता की कठोरता झलकती थी। लेकिन आंदोलनकारियों ने हार नहीं मानी — उन्होंने संघर्ष जारी रखा, भले ही उन्हें लगातार राजनीतिक और प्रशासनिक निराशा का सामना करना पड़ा।
1955 में संसद में गूंजी झारखंड की आवाज़
23 दिसंबर 1955 को हजारीबाग पश्चिम के सांसद बाबू रामनारायण सिंह ने संसद में झारखंड राज्य की मांग को बुलंद किया।
वे स्वतंत्रता आंदोलन के योद्धा थे और संविधान सभा के सदस्य भी। उन्होंने राज्य पुनर्गठन आयोग के प्रतिवेदन पर एक ऐतिहासिक भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा कि “देश में सभी झगड़े जनता की नहीं, बल्कि नेताओं की स्वार्थपूर्ण नीतियों के कारण होते हैं।”
उन्होंने यह भी कहा कि किसी राज्य या व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी दूसरे प्रदेश में शामिल करना अन्याय है।
बाबू रामनारायण सिंह का ऐतिहासिक भाषण और चेतावनी
उनके भाषण के कुछ हिस्से आज भी झारखंड की राजनीतिक चेतना को प्रतिबिंबित करते हैं। उन्होंने कहा कि
“कोई सरकार या संसद को यह अधिकार नहीं कि किसी मनुष्य को उसकी इच्छा के प्रतिकूल एक प्रांत से उठाकर दूसरे प्रांत में रख दे। ऐसा हुआ तो यह घोर अन्याय होगा।”
उन्होंने सुझाव दिया कि देश के विभाजन या क्षेत्रीय पुनर्गठन में जबरदस्ती नहीं, बल्कि आपसी सलाह और समझौते का रास्ता अपनाना चाहिए।
उन्होंने बिहार और बंगाल के बीच पुरुलिया विवाद का उदाहरण देते हुए कहा कि यदि कोई समाज खुद को अलग करना चाहता है, तो यह उस राज्य के लिए आत्ममंथन का विषय होना चाहिए, न कि विरोध का।
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नेताओं की स्वार्थपूर्ण नीतियों पर तीखा प्रहार
बाबू रामनारायण सिंह ने अपने भाषण में उस दौर की राजनीतिक सच्चाई उजागर की। उनका कहना था कि देश के पुनर्गठन के फैसले जनता की राय से नहीं, बल्कि नेताओं के हित में किए जा रहे हैं।
उन्होंने कहा कि “बिहार सरकार ने अनुचित और अन्यायपूर्ण कार्य करके अपने ही लोगों को दुखी किया है।”
उनकी यह टिप्पणी उस समय की राजनीतिक नीतियों पर सीधा हमला थी, जो आम जनता के हितों से दूर होती जा रही थीं।
आदिवासी अस्मिता और झारखंड की आत्मा
सिंह ने कहा कि आदिवासी समाज अब बिहार के अधीन रहना नहीं चाहता। वे अपने संस्कृति, परंपरा और पहचान को बचाने के लिए अलग राज्य चाहते हैं।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि गैर-आदिवासी लोगों को झारखंड बनने से डरने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह संघर्ष किसी जाति या धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि समानता और आत्मसम्मान के लिए है।
झारखंड आंदोलन की जीत: 15 नवंबर 2000
लगभग छह दशकों की लंबी लड़ाई के बाद, अंततः 15 नवंबर 2000 को झारखंड भारत का 28वां राज्य बना।
यह दिन सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि उस आदिवासी अस्मिता, सामाजिक न्याय और क्षेत्रीय सम्मान की विजय का प्रतीक बन गया जो दशकों से दबा हुआ था।
यह जीत उन सभी संघर्षों का परिणाम थी जिन्हें जयपाल सिंह, बाबू रामनारायण सिंह जैसे नेताओं ने अपने जीवन में जिया।
झारखंड के 25 वर्ष: भविष्य की नई दिशा
आज झारखंड विकास की नई परिभाषा लिख रहा है। राज्य ने शिक्षा, उद्योग, खनन और बुनियादी ढांचे में उल्लेखनीय प्रगति की है।
लेकिन अब ज़रूरत है उस ऐतिहासिक संघर्ष को याद रखने की, जिसने इस पहचान को जन्म दिया। क्योंकि यह सिर्फ राज्य का नहीं, बल्कि समानता और आत्मनिर्णय के अधिकार का प्रतीक है।
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