“21वीं सदी का महाभारत!” रामायण से लेकर बिहार चुनाव तक — धर्म, सत्ता और विवेक की जंग!

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भारतीय वांग्मय की दो महान कथाएँ रामायण और महाभारत आज के बिहार चुनाव में प्रतीक बनकर उभरी हैं — जहाँ मतदाता धर्म, सत्ता और विवेक के बीच चुनाव कर रहा है।
Highlights
  • • भारतीय वांग्मय की दो प्रमुख कथाएँ — रामायण और महाभारत • सत्ता और धर्म के विरोधाभासों की गहराई से पड़ताल • राम के वनवास से लेकर लव-कुश के प्रतिरोध तक सत्ता का विश्लेषण • कृष्ण का “धर्म” आज के लोकतंत्र में कैसे लागू होता है • बिहार चुनाव को आधुनिक महाभारत बताया गया — विवेक से वोट की अपील

भारतीय वांग्मय में रामायण और महाभारत का अद्भुत प्रभाव (H1)

भारतीय वांग्मय में यदि किसी कथा ने सबसे गहरा और स्थायी प्रभाव छोड़ा है, तो वह रामायण और महाभारत हैं। ये सिर्फ धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि भारतीय समाज, राजनीति और नैतिकता के दर्पण हैं।
ए. के. रामानुजन के चर्चित लेख “थ्री हंड्रेड रामायणाज” से यह स्पष्ट होता है कि रामकथा के सैकड़ों रूप हैं — प्रत्येक रूप में अलग दृष्टिकोण, अलग नैतिकता और अलग संघर्ष झलकता है।
इसके मुकाबले महाभारत अपेक्षाकृत ज्यादा जटिल और बहुआयामी है। यदि रामायण एक सीधी लकीर की कथा है, तो महाभारत विवेक और विरोधाभासों का विराट वृत्तांत।

रामायण: सत्ता और नैतिकता की सरल परंतु गहरी रेखा

“21वीं सदी का महाभारत!” रामायण से लेकर बिहार चुनाव तक — धर्म, सत्ता और विवेक की जंग! 1

रामकथा का आरंभ अयोध्या के राजा दशरथ से होता है, जिनकी तीन पत्नियाँ और चार पुत्र हैं।
सभी पुत्र एक ही यज्ञ के प्रसाद से जन्मे, इसलिए लगभग समवयस्क (एक ही उम्र के) हैं।
बड़ों में राम हैं — मर्यादा और संकल्प के प्रतीक।
राम और लक्ष्मण की शिक्षा पूर्व दिशा के गुरु विश्वामित्र के आश्रम में होती है, जबकि भरत और शत्रुघ्न पश्चिम दिशा के गुरु वशिष्ठ के सान्निध्य में शिक्षित होते हैं।

यहीं से कथा का राजनीतिक आयाम शुरू होता है।
वशिष्ठ, अपने शिष्य भरत को राजपद दिलाने के लिए षड्यंत्र रचते हैं और राम को चौदह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता है।
इस वनवास में रावण द्वारा सीता का अपहरण होता है, और एक ओर रथी रावण तो दूसरी ओर विरथ राम आमने-सामने होते हैं।
एक ओर संसाधनों से सम्पन्न लंकेश, दूसरी ओर संकल्प और साहस से भरे वनवासी राम।
जीत आखिरकार राम की होती है, क्योंकि उनके पास धर्म का बल और संकल्प की शक्ति थी।

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सत्ता की छाया में बदलते राम

राम अयोध्या लौटते हैं और राजा बनते हैं।
परंतु यही वह मोड़ है जहां मानव रूप में राम का चरित्र सत्ता से ग्रस्त होने लगता है।
जो राम कभी सीता के लिए युद्ध लड़ते हैं, वही सीता को गर्भवती अवस्था में वनवास देते हैं।
जो राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं, वही शंबूक जैसे भील तपस्वी की हत्या कर देते हैं — केवल इसलिए कि उसने धर्म की चर्चा की।

यहां रामकथा एक नैतिक प्रश्न उठाती है —
क्या राजपद और सत्ता का अहंकार व्यक्ति की संवेदना को कुचल देता है?
राम के पुत्र लव और कुश, अपनी माता सीता के साथ वन में अभावों के बीच बड़े होते हैं, और यहीं से कथा एक नया मोड़ लेती है।

लव-कुश का प्रतिरोध और सत्ता का पुनर्मूल्यांकन

राम अश्वमेध यज्ञ करते हैं।
यह एक खुली चुनौती होती है कि कोई घोड़े को रोककर राजा की सत्ता को चुनौती दे सकता है या नहीं।
राम को ज्ञात नहीं कि चुनौती इस बार भी वनवासियों के बीच से आएगी —
उनके अपने पुत्र लव और कुश उस घोड़े को पकड़ लेते हैं।

अब फिर वही स्थिति है —
एक ओर रथी राम, दूसरी ओर विरथ लव-कुश।
राजा और वनवासी, सत्ता और प्रतिरोध — एक बार फिर आमने-सामने हैं।
इस युद्ध में राम पराजित होते हैं, और यह पराजय प्रतीक है सत्ता के अहंकार की हार का।

रामायण यह संदेश देती है कि सत्ता चाहे किसी की भी हो — रावण की या राम की — वह अंततः भ्रष्ट करती है।
राजपद का अभिमान व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है।
इसीलिए यह कथा सदैव प्रासंगिक रहती है — हर काल, हर युग में।

महाभारत: रिश्तों, राजनीति और धर्म की जटिल भूलभुलैया

महाभारत, एक विस्तृत और बहुआयामी ग्रंथ है।
यह एक संयुक्त परिवार की कथा है, जिसमें अहंकार, अन्याय और धर्म की परिभाषा आपस में उलझती रहती है।
यहां दक्षिण भारत का उल्लेख नहीं, लेकिन पूरब से पश्चिम तक का उत्तर भारत कथा में शामिल है।

हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र अंधे हैं।
उनके सौ पुत्र हैं, जबकि उनके छोटे भाई पाण्डु के पांच पुत्र हैं — जिनमें युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव शामिल हैं।
पाण्डु की मृत्यु के बाद सत्ता धृतराष्ट्र और उनके पुत्र दुर्योधन के हाथों में आती है, जो पाण्डवों को उनका हिस्सा देने से इनकार करता है।
दुर्योधन उन्हें “खानगी औलाद” कहता है — यानी राजवंश के अयोग्य उत्तराधिकारी।

कृष्ण का धर्म और युद्ध की परिभाषा

द्वारका के कृष्ण, इन सबके साक्षी हैं।
वे पाण्डवों के समर्थन में खड़े होते हैं, जबकि अठारह अक्षौहिणी सेना कौरवों के साथ होती है।
भीष्म, द्रोण, कर्ण जैसे महान योद्धा भी कौरव पक्ष में हैं।
पाण्डवों के पास बस कृष्ण का मार्गदर्शन और धर्म का बल है।

कृष्ण युद्ध में हथियार नहीं उठाते, परंतु वे अर्जुन के सारथी और मार्गदर्शक बनते हैं।
अर्जुन के संशय के बीच कृष्ण कहते हैं —

“जहाँ धर्म है, वहीं विजय है – यतो धर्मस्ततो जयः।”

परंतु धर्म की यह परिभाषा सीधी नहीं है।
कृष्ण स्वयं छल करते हैं —
वे अर्जुन को कर्ण को तब मारने का आदेश देते हैं जब वह निहत्था होता है।
वे युधिष्ठिर के सत्य को शंखध्वनि में डुबो देते हैं ताकि द्रोण भ्रमित होकर मारे जाएँ।
यहाँ धर्म एक बहुआयामी विचार बन जाता है, न कि केवल अच्छाई-बुराई का फर्क।

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बिहार चुनाव 2025: आधुनिक महाभारत का मैदान

लेख के अंत में लेखक हमें आज की स्थिति की ओर मोड़ते हैं —
“अब आप अपनी दुनिया देखिए… बिहार में चुनाव हो रहा है।”
यह एक रूपक है — रामायण और महाभारत का आधुनिक संस्करण।
यहाँ भी सत्ता, धर्म, विवेक और न्याय की जंग चल रही है।

जनता के सामने वही सवाल है —
क्या हम धर्म के नाम पर सत्ता के अहंकार को चुनेंगे या विवेक और योग्यता के आधार पर निर्णय लेंगे?
हिंसक, बाहुबली, पाखंडी, धनवान उम्मीदवारों की भीड़ में
मतदाता का विवेक ही सच्चा “कृष्ण” है।

इस चुनाव का युद्धक्षेत्र वही कहता है जो महाभारत ने कहा था —

“धर्म तुम्हारे विवेक में है, ग्रंथों में नहीं।”

धर्म, विवेक और लोकतंत्र की जय

राजनीति आज का धर्म है, और वोट उसका अभिषेक।
आपका मत तय करेगा कि सत्ता किसके हाथों में जाएगी —
रथी के या विरथ के, रावण के या विवेकवान राम के।
अगर योग्य उम्मीदवार न मिले तो NOTA दबाना भी धर्म-कर्म है, क्योंकि
लोकतंत्र में मौन भी एक आवाज़ है।

यह लेख केवल पुरानी कथाओं की पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और विवेकपूर्ण संदेश है —
कि सत्ता से बड़ा धर्म, और धर्म से बड़ा विवेक है।

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