योगेन्द्र योगी (समीक्षक और विश्लेषक )
राज्यपाल और राष्ट्रपति के बिल रोकने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों से केंद्र सरकार से उत्पन्न टकराहट की जड़ में न्यायिक नियुक्ति आयोग पर दिया गया फैसला है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर केंद्र सरकार द्वारा संसद में पारित किए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग को निरस्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम व्यवस्था को जारी रखा था। इस आयोग के जरिए केंद्र सरकार चाहती थी कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में उसकी भी भूमिका होनी चाहिए। अकेले सुप्रीम कोर्ट को यह हक नहीं होना चाहिए कि अपने चहेते न्यायाधीशों की नियुक्ति करे। केंद्र सरकार की न्यायिक आयोग बनाए जाने की मंशा यही थी कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर उसके द्वारा चयनित न्यायाधीशों के मौजूद होने से पक्ष में फैसला होने की संभावना रहेगी। न्यायिक आयोग में सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीशों के साथ केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों का भी प्रावधान किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार की इस मंशा को भाप गया था। वर्ष 2015 में दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखना महत्वपूर्ण है और न्यायिक आयोग इस स्वतंत्रता को खतरे में डालता है। इस फैसले पर भी खूब वाद-विवाद हुआ था। न्यायिक आयोग के जरिए केंद्र सरकार पर सुप्रीम कोर्ट में दखलंदाजी करने और इसे राजनीतिक अखाड़ा बनाने की बात कही गई थी। दूसरी तरफ न्यायिक आयोग की पैरवी करने वाले केंद्र सरकार के पैरवीकारों का कहना था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद हावी है। आयोग के निरस्त होने का रंज केंद्र सरकार को अभी तक है। इसी वजह से राज्यपाल और राष्ट्रपति के बिल रोकने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से केंद्र सरकार से छत्तीस का आंकड़ा बन गया है। तमिलनाडु बनाम राज्यपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की तरह राष्ट्रपति के लिए भी दी समय-सीमा बताई है।
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा सुरक्षित रखे गए विधेयकों पर 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। राज्य राष्ट्रपति की निष्क्रियता के खिलाफ अदालत जा सकते हैं। इस अवधि से अधिक किसी भी देरी के मामले में, उचित कारणों को दर्ज करना होगा और संबंधित राज्य को बताना होगा। राज्यों से यह भी अपेक्षित है कि वे सहयोगात्मक बनें तथा उठाए जाने वाले प्रश्नों के उत्तर देकर सहयोग प्रदान करें तथा केंद्र सरकार द्वारा दिए गए सुझावों पर शीघ्रता से विचार करें। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद राजनीतिक बवंडर आ गया। उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले को लेकर न्यायपालिका के बारे में सख्त टिप्पणी कर दी। उन्होंने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। उप राष्ट्रपति ने इसकी ओर इशारा करते हुए कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 एक ऐसा परमाणु मिसाइल बन गया है जो लोकतांत्रिक ताक़तों के खिलाफ न्यायपालिका के पास चौबीसों घंटे मौजूद रहता है। उन्होंने कहा कि देश में ऐसी स्थिति नहीं हो सकती कि आप राष्ट्रपति को निर्देश दें। सुप्रीम कोर्ट को ये अधिकार किसने दिया है और वो किस आधार पर ऐसा कर सकता है।
गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को ये अधिकार देता है कि वो पूर्ण न्याय करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फ़ैसला दे सकता है चाहे वो किसी भी मामले में क्यों न हो। लेकिन उप राष्ट्रपति ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ संविधान की व्याख्या कर सकता है। धनखड़ ने कहा कि हमारे पास ऐसे जज हैं जो अब कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम करेंगे और एक सुपर संसद की तरह भी काम करेंगे और कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे, क्योंकि इस देश का क़ानून उन पर लागू तो होता नहीं। उप राष्ट्रपति ने हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के दिल्ली आवास से कथित तौर पर जले नोट मिलने के बाद भी एफआईआर दर्ज न होने पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि ये घटना किसी आम आदमी के घर में होती तो बिजली की गति से कार्रवाई होती। लेकिन यहां तो बैलगाड़ी की रफ़्तार से भी कार्रवाई नहीं हो रही है। उन्होंने कहा कि विधानसभा का चुनाव हो या लोकसभा का हर सांसद, विधायक और उम्मीदवार को अपनी संपत्ति घोषित करनी होती है लेकिन वे (जज) ऐसा कुछ नहीं करते।
इस पर पलटवार करते हुए डीएमके राज्यसभा सांसद तिरुचि शिवा ने कहा कि संविधान की रक्षा करने का अधिकारी होने से किसी व्यक्ति को ये अधिकार नहीं मिल जाता कि वो संसद में पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक कर रख सकता है। सीपीआई नेता डी राजा ने कहा कि लोकतांत्रिक ढांचे को बचाए रखने लिए चेक एंड बैलेंस जरूरी है। संविधान का अनुच्छेद 74(1) यह साफ कहता है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बंधे हैं। राष्ट्रपति सर्वोच्च संवैधानिक पद पर रहते हुए, ऐसे मामलों में स्वतंत्र विवेक का इस्तेमाल नहीं करते। उन्होंने कहा कि उपराष्ट्रपति की टिप्पणी आरएसएस-भाजपा की ओर से विपक्ष के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों को कमज़ोर करने के लिए राज्यपाल की शक्तियों के दुरुपयोग को सही ठहराती है।
हाल के वर्षों में ऐसी प्रवृति ख़तरनाक ढंग से बढ़ी है। सीनियर एडवोकेट और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कहा कि अगर कार्यपालिका अपना काम नहीं कर रही है, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने का पूरा अधिकार है। सिब्बल ने उपराष्ट्रपति के बयानों को राजनीतिक करार देते हुए कहा कि उन्होंने आज तक किसी राज्यसभा सभापति को ऐसे बयान देते नहीं देखा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति केवल नाममात्र की प्रमुख हैं। वे कैबिनेट की सलाह और स्वीकृति पर कार्य करते हैं। उनके पास कोई व्यक्तिगत निर्णय लेने की शक्ति नहीं होती। सिब्बल ने कहा कि अगर कार्यपालिका अपना काम नहीं कर रही है, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना चाहिए। ऐसा करना उनका अधिकार है। उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि न्यूक्लियर मिसाइल तो नोटबंदी थी, तब किसी को तकलीफ नहीं हुई? दरअसल सत्तारुढ राजनीतिक दलों के राजनीतिक उद्देश्य होते हैं, जब ये संविधान के दायरे में पूरा नहीं होते तब अदालतों से टकराहट की नौबत आती है। इसकी पुनरावृत्ति निश्चित तौर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक है। ऐसे विवादस्पद मुद्दों को सभी पक्षों को मिलबैठ कर निपटाने से ही देश की संवैधानिक विविधता और एकता-अखंडता मजबूत रहेगी।
न्यायिक नियुक्ति आयोग के खात्मे का दर्द
