अन्नदाताओं की समस्याओं का समाधान आखिर कब होगा? क्या उनकी मांगे भविष्य में कभी पूरी हो भी पाएंगी या नहीं? केंद्र में सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, हर दौर में यही सब कुछ देखने को मिलता है। कमोबेस, सरकारों का रवैया एक जैसा ही रहता है। इसलिए एकाएक किसी सरकार को दोषी ठहराना किसी टिप्पणीकार के लिए बेईमानी ही होगी। किसान आंदोलनों से जो समस्याएं उपजती हैं, उसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ आमजन ही भुगतते हैं। समस्याएं किस कदर पनपती हैं इस ओर शायद किसी का भी ध्यान नहीं जाता। मरीज, छात्र, राहगीर, दैनिक कर्मी तो बेहाल होते ही हैं, रोजमर्रा के क्रियाकलाप भी रुक जाते हैं। दो दिसंबर को भी यही हुआ, जब किसान उत्तर प्रदेश के एक छोर से चले, तो सड़कों पर दौड़ने वाले तेज वाहनों के पहिए थम गए। क्या मरीज, क्या नौकरीपेशा, सभी के पैर अपने जगह रूक गए।
विभिन्न मांगों को लेकर किसान संगठनों ने एक बार फिर दिल्ली पर चढ़ाई करने का प्रयास किया हैं। हालांकि उन्हें बलपूर्वक बॉर्डरों पर ही रोका गया। पर दिल्ली-एनसीआर के हालात एक बार फिर बिगड़ते दिखाई पड़ने लगे हैं। इस दफे भी किसानों के तेवर उग्र दिख रहे हैं। अन्नदाता लंबा आंदोलन करने के मूड़ में हैं। अगर उनकी समस्याओं का समाधान समय रहते नहीं हुआ, तो हालात पिछले किसान आंदोलन जैसे बनने में वक्त नहीं लगेगा। किसान केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को बीते एक महीने से अल्टीमेटम दे रहे थे कि उनकी मांगे मानी जाएं। कोई जिम्मेदार व्यक्ति उनसे बात करे , जिससे दोनों पक्ष बैठकर कोई हल निकाल सकें। लेकिन उनकी बातों को हुकूमती स्तर पर अनसुना और अनदेखा किया गया।
दिल्ली पहुंचने के लिए गौतमबुद्ध नगर से करीब 50,000 से अधिक किसान दो तारीख को नोएडा महामाया फ्लाईओवर के पास एकत्रित हुए फिर दिल्ली कूच किया। हालांकि तत्काल रूप से तो पुलिस ने उनकी योजना को विफल कर दिया है। लेकिन किसान बॉर्डर पर ही डटे हुए हैं, वह किसी भी सूरत में दिल्ली पहुंचना चाहते हैं। उनको लगता है संसद का शीत सत्र चालू है। पूरी हुकूमती मशीनरी इस समय एक साथ है, उनकी बातें आसानी से पहुंच सकती है। पर, ऐसा होता दिख नहीं रहा। केंद्र सरकार आसानी से सब कुछ मान लेगी, ऐसा दिखाई नहीं देता। इसलिए किसान काफी उग्र हैं। वे अपने साथ राशन, टैक्टर, मोटर साइकिल, गैस सिलेंडर, तंबू आदि लेकर पहुंचे हैं।
किसानों ने दिल्ली मार्च का प्लान अचानक ही बनाया। कोई प्री-प्लान नहीं था । उनकी प्रमुख मांगे हैं, उन्हें ज़मीन के बदले 10 पर्सेंट निर्मित प्लॉट और 64 पर्सेंट बढ़ा हुआ जमीन का शेष मुआवज़ा दिया जाए। साथ ही जो किसान जमीन छिन जाने से भूमिहीन हुए हैं, उनके परिवार के बच्चों को केंद्र सरकार और राज्य सरकार कोई न कोई रोजगार की व्यवस्थाएं करे। एमएसपी गारंटी कानून लागू करें। फसलों की कीमतें दोगुनी हों, खाद, बीज व कीटनाशक दवाईयों के रेट कम किए जाएं, जैसी पुरानी मांगे भी शामिल हैं। इस वक्त मंड़ियों में धान की खरीद में जो घटतौली हो रही है उसे तुरंत रोका जाए। ये ऐसी मांगे हैं जिसे शायद ही सरकारें मांगे।
अभी गनीमत ये है कि इस मोर्चे में सिर्फ दर्जन भर ही किसान संगठन शामिल हुए हैं। करीब सौ से ज्यादा किसान संगठनों का समर्थन उन्हें प्राप्त है। मोर्चे को रोकने को अगर कोई विकल्प नहीं निकाला गया, तो अन्य किसान संगठन भी कूदने में देर नहीं करेंगे। हांलाकि सोमवार को किसान मोर्चे को देखते हुए नोएडा ट्रैफ़िक पुलिस और दिल्ली पुलिस की ओर से एडवाइजरी की गई जिसमें कालिंदी कुंज बॉर्डर, यमुना एक्सप्रेस-वे और डीएनडी बॉर्डर से बचने की लोगों को सलाह दी गई, क्योंकि इन जगहों पर मोर्चे का असर व्यापक रूप से देखने को मिला। लोग परेशानी से जूझते दिखाई पड़े। स्कूली बच्चों भी जाम में फंसे रहे, एम्बुलेंस भी नहीं निकल पाईं। नौकरीपेशा समय से अपने कार्यालयों में नहीं पहुंच पाए। ये हालात ऐसे ही बने रहेंगे, जब तक ये मूवमेंट चलता रहेगा।
किसान मूवमेंट शुरू होने के कुछ घंटों बाद ही राजनीति भी आरंभ हो गई। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने अपना समर्थन दे दिया। कांग्रेस ने कहा दिल्ली बॉर्डर पर बैरिकेडिंग, वाटर कैनन, दंगा नियंत्रण गाड़ियां और अमित शाह की पूरी पुलिस तैनात की गई। ऐसा प्रतीत होता है जैसे की उनको किसी आंतकवादी को रोकना या पकड़ना हो? किसान भूमि अधिग्रहण का उचित मुआवज़ा और फसल के सही दाम की मांग लेकर दिल्ली आकर सोती सरकार को जगाना चाहते हैं इसमें बुरा क्या है? आप ने कहा कि राष्ट्र की राजधानी किसी की बपौती तो है नहीं? फिर किसान क्यों नहीं आ सकते? प्रधानमंत्री पर भी उन्होंने हमला किया। बोले, किसानों पर बर्बरता के नए आयाम रच रहे हैं प्रधानमंत्री। उनके दिल में अन्नदाताओं के लिए रत्ती भर सम्मान नहीं है। कांग्रेस का मानना है कि किसान अपनी जायज मांगों को लेकर दिल्ली आना चाहते हैं, उन्हें आने देना चाहिए, उनपर वाटर कैनन का प्रयोग करना गलत है। ऐसे मौकों पर विपक्ष का बिना सोचे समझे कूद पड़ना, ‘आग में घी डालने’ का काम कर जाता है। जबकि, उन्हें केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर समाधान की ओर ले जाना चाहिए। पर, दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाता।